नमक और चीनी के बहाने प्लास्टिक खा रहे हैं आप,स्टडी में दावा

नमक के बगैर आप अपने खाने की कल्पना करिए? कैसा होता खाना अगर आपके खाने में नमक ना होता? ना केवल स्वाद के नजरिए से बल्कि पोषण के भी नजरिए से नमक हमारे खाने में सोडियम और ग्लूकोज का प्रमुख स्त्रोत है. लेकिन, क्या होगा नमक ही बीमारियों का प्रमुख कारण बन जाए?
सोचिए, अगर कोई ये कहे कि जो नमक आप खा रहे हैं उसमें प्लास्टिक है. यह कोई लंतरानी नहीं बल्कि एक स्टडी में ऐसी ही बात सामने आई है.

असल में एक हालिया अध्ययन में पता चला है कि भारतीय ब्रांड वाले नमक और चीनी में माइक्रोप्लास्टिक्स हो सकते हैं। नमक और चीनी चाहे पैक्ड हों या अनपैक्ड लगभग सभी में माइक्रोप्लास्टिक्स पाए गए हैं। गौरतलब है कि माइक्रोप्लास्टिक्स को कैंसर के प्रमुख कारकों में से एक माना जाता है।

पर्यावरण अनुसंधान संगठन टॉक्सिक्स लिंक ने मंगलवार (13 अगस्त) को अपनी इस रिपोर्ट को छापा है. इस स्टडी को ‘माइक्रोप्लास्टिक्स इन सॉल्ट एंड शुगर’ नाम से छापा गया है.

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इस स्टडी में संस्था ने ने टेबल सॉल्ट, रॉक सॉल्ट, समुद्री नमक और कच्चे नमक सहित 10 तरह के नमक और 5 तरह की चीनी सैंपल के तौर पर लिए थे. स्टडी के बाद संस्था ने ये पाया कि नमक और चीनी के सभी सैंपल्स में अलग-अलग तरह के माइक्रोप्लास्टिक्स मिले हुए हैं. स्टडी में पाया गया कि नमक और चीनी के सैंपल्स में फाइबर, पेलेट्स, फिल्म्स और फ्रैगमेंट्स मिले हुए हैं. चिंता की बात ये है कि स्टडी में माइक्रोप्लास्टिक्स का आकार 0.1 मिलीमीटर से 5 मिलीमीटर के बीच पाया गया है. सबसे अधिक माइक्रोप्लास्टिक्स तो उस नमक में पाई गई जिसमें आयोडीन की मात्रा ज्यादा थी.
दूसरी ओर, चीनी के सैंपल्स में माइक्रोप्लास्टिक्स का अमाउंट 11.85 से 68.25 टुकड़े प्रति किलो तक मिला.

माइकरोप्लास्टिक्स का मिलना क्यों है चिंता की बात?

अलग अलग स्टडीज के अनुसार औसत भारतीय हर दिन तकरीबन 11 ग्राम नमक और लगभग 10 चम्मच चीनी अपने खाने में किसी ना किसी तरह से लेते हैं.
स्टडी कराने वाले संस्था ने पीटीआई से एक बयान में कहा है कि सभी सैंपल्स में माइक्रोप्लास्टिक मिलना चिंता की बात है क्योंकि यह ना सिर्फ़ पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है बल्कि भारतीयों के स्वास्थ्य पर भी खतरे की बड़ी आहट है.
टॉक्सिक्स लिंक के संस्थापक-निर्देशक रवि अग्रवाल ने बताया कि हमारी स्टडी का केवल एक ही मकसद है कि माइक्रोप्लास्टिक्स पर जो अब तक का साइंटिफिक डेटा है वह और स्पष्ट हो ताकि ग्लोबली इस समस्या का निराकरण ढूंढा जा सके.

ये स्टडी ना सिर्फ आम आदमी के लिए बल्कि सरकारों और जिम्मेदारों के लिए भी खतरे का एक संकेत है. अगर यह खतरा बढ़ता है तो निश्चित ही भारत के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा.
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