दूसरा विश्व युद्ध, जिसने दुनिया को कई मायनों में बदला, भारत की खेती को एक नया सिस्टम दे कर गया था. अंग्रेजों ने उस वक्त राशन प्रणाली शुरू की. वहाँ से हुई एमएसपी आधारित खरीद की शुरुआत. आजादी के बाद एक लंबे समय तक भारत अनाज की कमी से जूझ रहा था. हरित क्रांति के बाद भारत ने एमएसपी (MSP) के सहारे किसानों से अनाज खरीदे और कम कीमतों पर (सब्सिडी के साथ) ग़रीबों में बांटे. ये 1966-67 का साल था. बहरहाल, वक्त बदला और भारत अनाज संकट से उबर गया और अब, अपना पेट भरने के लिए भारत की खेती पर्याप्त है. बल्कि कई बार पर्याप्त से भी ज्यादा क्योंकि हम इस वक्त पूरी दुनिया को कई फसलें एक्सपोर्ट भी करते हैं. लेकिन सवाल ये है कि जिन किसानों ने भारत के पेट को अनाज से भरा, हम उन्हें आजादी के 77 साल बाद भी उचित कीमत क्यों नहीं दे सके? हर साल किसानों का जत्था ( छोटा या बड़ा) राजधानी दिल्ली से लेकर प्रदेश की राजधानियों के चक्कर लगाता है और निराश लौट जाता है. हाँ, आप कह सकते हैं कि केंद्र सरकार ने 23 फसलों को एमएसपी फसलों की श्रेणी में रखा है , जिनकी एमएसपी का ऐलान भी साल में दो बार होता है. लेकिन कानून की तरफ से सरकार ऐसा करने को बाध्य नहीं है.
समस्या क्या?
यह अजीब बात ही है कि एमएसपी (MSP) कॉन्सेप्ट जिसके इर्द-गिर्द चुनावी वादों से लेकर किसानों के प्रदर्शन देश भर में दशकों से चल रहे हों, कानून की किताबों में उनका कहीं ज़िक्र नहीं. यह ठीक वैसा ही है कि आपसे कोई दुकानदार कह दे कि मेरा इनवर्टर ले जाओ, 5 साल चलेगा लेकिन उसके साथ दुकानदार आपको 5 साल की गारंटी के पेपर ना दे. पेपर ही नहीं है तो दुकानदार बाध्य नहीं है. आपका इनवर्टर खराब हुआ तो वो कहेगा दूसरा ले लो. किसान भी अपने फसलों को बेचने के लिए ऐसे ही जूझते हैं. सरकार तो सरकार निजी व्यापारी भी एमएसपी पर खरीद के लिए बाध्य नहीं. क्योंकि ऐसा कोई कानून है ही नहीं जिससे उनके मन में डर हो कि कम कीमत पर खरीदना कानून तोड़ना है. और किसान? किसान इसी वजह से घाटे की खेती करने को भी मजबूर हैं. CACP (Commission for Agricultural Costs & Prices) ने बहुत पहले केंद्र सरकार से कहा था कि देश के किसानों को एक ऐसे कानून की जरूरत है जो उनकी फसलों को एमएसपी पर खरीदे जाने की गारंटी दे लेकिन केंद्र सरकार ने उस सुझाव को खारिज कर दिया. 1991 में आर्थिक सुधारों के साथ यह वादा किया गया था कि जल्दी ही भारत औद्योगिक तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ेगा और एक बड़ा तबका जो अभी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, वह औद्योगिक क्षेत्रों में नौकरी करेगा. 30 साल से ज्यादा हो गए इस बात को, कृषि क्षेत्र ने तमाम उतार-चढ़ाव भी देखे लेकिन ये वादा, वादा ही रहा. आज भी देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी कृषि पर ही निर्भर है और इस आबादी की के बेसिक मांग – उपज को सही कीमत, हम पूरा नहीं कर पा रहे. औद्योगिक क्षेत्रों का भी आलम बहुत जुदा नहीं. एक आंकड़ा है The Economic and Political Weekly नाम के एक जर्नल का, वह कहता है कि 2012 से 2018 तक युवाओं में भयंकर बेरोजगारी बढ़ी और देश का औद्योगिक क्षेत्र बेरोजगारों को पर्याप्त काम नहीं दे सका. साल 2019 में बेरोजगारी अपने चरम पर थी और अब भी हालात बहुत नहीं बदले. ऐसे में कृषि क्षेत्र जो ऐसी स्थिति का एक विकल्प है, उसे ठीक करने के प्रयास होने चाहिए लेकिन बात तो अभी एमएसपी गारंटी कानून पर ही अटकी है.
कैसे मिलेगा हल?
जब सरकार या विशेषज्ञ ये कहते हैं कि यह सरकार के बस का नहीं कि देश का सारा अनाज वो खरीद सके और उसे जरूरत भी नहीं है.यह ठीक बात है कि सरकारी अमले के पास स्टोरेज की भी तो समस्या होगी? प्राइवेट सेक्टर को भी आगे आना चाहिए. लेकिन बात इतनी नहीं है. जब किसान अनाज की खरीद ना होने से और कई बार उचित कीमत ना मिलने से परेशान हैं ठीक उसी वक्त ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट आती है कि भारत में लगभग 190 मिलियन लोग कुपोषित हैं. अब इसका मतलब ये हुआ कि या तो सरकार के पास ग़रीबों को देने के लिए अनाज नहीं या फिर खरीदे हुए अनाज को वह जरूरतमंदों तक पहुंचा नहीं पा रही. दूसरा कारण ही ज्यादा सही लगता है क्योंकि हम आए दिन सरकारी गोदामों में अनाज के सड़ने की खबर पढ़ते तो हैं ही. एक कारण और है, सरकार हरी पत्तेदार सब्जियाँ, दाल, चना और ज्वार जैसी पर्याप्त पोषक फसलें नहीं खरीदती है, इससे ना सरकारी मदद के भरोसे बैठे लोगों तक ये सब पहुँच पाता है और किसान भी इसे क्यों उगाए जब सरकार खरीद ही नहीं रही? किसान आंदोलन (2020-21) के बाद केंद्र सरकार ने किसानों से एमएसपी पर उनकी मांगों पर विचार करने के लिए कमेटी बनाने का ऐलान किया. वो कमेटी बनते-बनते ही 7 महीने लग गए. और अब उसके डेढ़-दो साल बाद भी पूरे देश को उस कमेटी के रिपोर्ट का इंतज़ार है. भारत अब फूड सिक्योरिटी से आगे बढ़ कर न्यूट्रिशन (पोषक आहार) सिक्योरिटी पर बढ़ा चाहता है लेकिन फूड चेन और सप्लाई के इस विमर्श की जड़ अभी भी खोखली है.
एक्सपर्ट्स कहते हैं यह अकेले केंद्र सरकार के वश का नहीं कि वो एमएसपी पर गारंटी दे और उस गारंटी को निभा भी सके. इसके लिए राज्यों और प्राइवेट सेक्टर को भी आगे आना पड़ेगा. राज्यों का तो ठीक है लेकिन प्राइवेट सेक्टर को ऐसा करने के लिए बाध्य कौन करेगा? वो एमएसपी पर खरीद के लिए बाध्य तभी होंगे जब इस बाबत कोई कानून हो. और किसानों की मांग यही तो है. पंजाब में वो मंडियाँ जहां किसान अपनी उपज बेच सकते हैं, ऐसे मंडियों के बीच की दूरी 6 किलोमीटर है और पूरे देश में यही दूरी 12 किलोमीटर. राज्य सरकारों को बेशक इस बाबत सोचकर उचित व्यवस्था बनानी चाहिए लेकिन जो किसान मजबूर हो कर कम कीमत में अपनी फसलें बेचने पर मजबूर हैं, उसका हल केवल वह कानून है जो प्राइवेट सेक्टर को अपनी मनमानी करने से रोके. दस रुपए की कोई चीज किसानों से खरीद कर मार्केट में आम ग्राहकों को उसे 40 से 50 रुपए में बेचना – ये इसी धांधली की देन है जिसपर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं दिखता. अगर आम ग्राहक महंगा खरीद रहा है तो उसका फायदा किसानों को भी तो हो.
किसान जस के तस रहें और महंगाई नियमित ‘तरक्की’ की राह पर हो – ये बात पचती नहीं और कई दशकों से चल रही किसानों की लड़ाई इतनी ही है.