अपने देश भारत(India) को आजाद हुए 77 साल हो गये। इन वर्षों में देश ने कई क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव देखे। इस कड़ी में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र कृषि भी है जो हमारे हमारी अर्थव्यस्था की धुरी है। देश जब आजाद हुआ तो वह समय ऐसा था कि आजाद भारत के सामने बड़ी चुनौती 34 करोड़ से ज्यादा लोगों का पेट भरना था। साल 1950-51 में केवल 5 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता था जो देश की 35 करोड़ जनसंख्या का पेट भरने के लिए पर्याप्त नहीं था। इस स्थिति से जल्द से जल्द निपटने के लिए भारतीय राजनेताओं ने भूमि सुधार, सिंचाई सुविधाओं का विस्तार, कृषि में वैज्ञानिक विधियों व अनुसंधान को बढ़ावा देने और हरित क्रांति समेत कई बड़े कदम उठाए। समय के साथ-साथ नई-नई प्रौद्योगिकी व मशीनों के इस्तेमाल से अनाज का उत्पादन बढ़ाने में सहायता मिली। नतीजा यह हुआ कि आज भारत न सिर्फ अपनी समूची जनसंख्या को खाद्यान्न उपलब्ध करवाता है बल्कि कृषि उत्पादों का निर्यात भी करता है। वर्तमान में भारत खाद्य उत्पादन के मामले में दुनिया में दूसरे स्थान पर है। लेकिन ये कैसे हुआ और क्या बड़े बदलाव किए गए, इन्हें आपको प्वाइंट्स में समझाते हैं।
हरित क्रांति (Green Revolution)
1960 के दशक में नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug) द्वारा कृषि के क्षेत्र में शुरू किया गया एक प्रयास था। जिसका उद्देश्य उच्च उपज देने वाली किस्मों के बीज, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई और मशीनीकरण जैसी नई तकनीकों को पेश करने के माध्यम से भारत में खाद्य फसलों, विशेष रूप से गेहूँ एवं चावल के उत्पादन और गुणवत्ता को बढ़ाना था। इसके लिए इन्हें विश्वभर में ‘हरित क्रांति के जनक’ (Father of Green Revolution) के रूप में जाना गया। वर्ष 1970 में नॉर्मन बोरलॉग को उच्च उपज देने वाली किस्मों (High Yielding Varieties- HYVs) को विकसित करने के उनके कार्य के लिये नोबेल शांति पुरस्कार भी दिया गया। भारत में हरित क्रांति का नेतृत्व मुख्य रूप से एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य देश की आबादी के लिये आत्मनिर्भरता एवं खाद्य सुरक्षा प्राप्त करना और खाद्य आयात पर निर्भरता कम करना, लाखों किसानों और ग्रामीण लोगों की आय एवं जीवन स्तर में सुधार लाना तथा गरीबी एवं भुखमरी को कम करना, कृषि क्षेत्र का आधुनिकीकरण करना और इसे वैश्विक बाज़ार में अधिक कुशल, लाभदायक और प्रतिस्पर्द्धी बनाना था।

भारत में हरित क्रांति उस अवधि को संदर्भित करती है जब भारतीय कृषि अधिक उपज देने वाले बीज की किस्मों, ट्रैक्टर, सिंचाई सुविधाओं, कीटनाशकों और उर्वरकों के उपयोग जैसे आधुनिक तरीकों एवं प्रौद्योगिकियों को अपनाने के कारण एक औद्योगिक प्रणाली में परिवर्तित हो गई थी। इसे भारत सरकार और अमेरिका की फोर्ड एंड रॉकफेलर फाउंडेशन (Ford and Rockefeller Foundation) द्वारा वित्तपोषित किया गया था। भारत में हरित क्रांति मोटे तौर पर गेहूं क्रांति है क्योंकि वर्ष 1967-68 और वर्ष 2003-04 के मध्य गेहूं के उत्पादन में तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई, जबकि अनाजों के उत्पादन में कुल वृद्धि केवल दो गुना थी।
यदि देश में हरित क्रांति नहीं आती तो इतनी बड़ी आबादी का पेट पालना मुश्किल होता। तब भारत को ‘शिप टू माउथ’ अर्थव्यवस्था (ship to mouth economy) के रूप में जाना जाता था, क्योंकि देश P.L.480 स्कीम के तहत अमेरिका से 10 मिलियन टन खाद्यान्न का आयात कर रहा था और भारत के पास इसके भुगतान के लिये पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी। स्थिति इतनी गंभीर हो गई थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्र से ‘सप्ताह में एक समय का भोजन नहीं करने’ और गेहूँ की चपाती सहित विभिन्न गेहूँ उत्पाद शादी की पार्टियों में नहीं परोसने का आह्वान किया था। अब स्थिति यह है कि 140 करोड़ से ज्यादा लोगों को पेट भरने के अलावा हमारा देश अनाज निर्यात भी कर रहा है।
श्वेत क्रांति (White Revolution)
श्वेत क्रांति, भारत के विकास में एक ऐसी क्रांति जिसने भारत को दुग्ध उत्पादन के मामले में पूरे विश्व में शीर्ष पर पहुंचा दिया। इसका पूरा श्रेय भारत में श्वेत क्रांति के जनक डॉ. वर्गीज कुरियन को जाता है। उनके प्रयास ने ना सिर्फ भारत में दुग्ध उत्पादन को गांव से शहरों की ओर पहुंचाया बल्कि पशुधन मालिकों को आर्थक रूप से भी मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई। श्वेत क्रांति या सफ़ेद क्रांति, जिसे ऑपरेशन फ्लड (Operation Flood) के रूप में भी जाना जाता है, 1970 के दशक में भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए शुरू किया गया था। यह भारत सरकार की एक क्रांतिकारी पहल थी, जिसने उपभोक्ताओं को भारत के विभिन्न दूध उत्पादकों और विक्रेताओं को प्रदान किया। श्वेत क्रांति बहुत फायदेमंद थी और दूध के ठोस आयात को समाप्त कर दिया और इससे डेयरी बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ। परिणामस्वरूप भारत वर्ष 1998 में अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए दूध का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। वर्तमान में भारत 22% वैश्विक उत्पादन के साथ दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है।
राष्ट्रीय दुग्ध दिवस हर साल 26 नवंबर को पूरे देश में मनाया जाता है और हर साल जून के पहले दिन को विश्व दुग्ध दिवस के रूप में मनाया जाता है। मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय ने भी आनंद में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) परिसर में गोपाल रत्न पुरस्कार शुरू करने की घोषणा की है।

नीली क्रांति (Blue revolution)
नीली क्रांति मिशन का उद्देश्य मत्स्य पालन को बढ़ावा देकर भारत की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाना और इस प्रकार खाद्य एवं पोषण सुरक्षा में योगदान देना है। नील क्रांति मिशन से मत्स्य पालन के विकास के लिए जल संसाधनों का उपयोग स्थायी तरीके से किया गया।
भारत में नीली क्रांति की शुरुआत 7वीं पंचवर्षीय योजना (1985-1990) के दौरान भारत की केंद्र सरकार की मछली किसान विकास एजेंसी (FFDA) के प्रायोजन के दौरान हुई थी। बाद में, 8वीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) के दौरान, गहन समुद्री मत्स्य पालन कार्यक्रम शुरू किया गया, और अंततः, विशाखापत्तनम, कोच्चि, तूतीकोरिन, पोरबंदर और पोर्ट ब्लेयर में मछली पकड़ने के बंदरगाह भी स्थापित किए गए। भारत में नीली क्रांति के साथ-साथ मत्स्य कृषक विकास एजेंसी (एफएफडीए) ने पालन, विपणन, निर्यात और मछली प्रजनन की नई तकनीकों की शुरूआत के साथ जलकृषि और मत्स्य पालन क्षेत्र में सुधार लाया।

वर्तमान में भारतीय मत्स्य पालन क्षेत्र 4.7 मिलियन टन मछली उत्पादन तक पहुंच गया है, जिसमें मीठे पानी के जलीय कृषि से 1.6 मिलियन टन मछली शामिल है, जो 50 साल पहले 60,000 टन की सीमा से अधिक है।मछली और मछली उत्पादों के उत्पादन में वैश्विक औसत 7.5 प्रतिशत की तुलना में भारत ने 14.8% की औसत वार्षिक वृद्धि हासिल की है। पिछले पांच वर्षों में 6% – 10% की वृद्धि दर के साथ मत्स्य पालन भारत का सबसे बड़ा कृषि निर्यात बन गया है। भारत का मत्स्यपालन उद्योग प्रतिवर्ष औसतन 9 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और इस क्षेत्र में सबसे तेज़ गति से विकास करने वाले देशों में भारत भी है।
भारतीय मत्स्यपालन क्षेत्र जो 50 वर्ष पहले केवल 60,000 टन मछली उत्पादन करता था, अब 4.7 मिलियन टन का उत्पादन करता है, जिसमें 1.5 मिलियन टन उत्पादन ताजे जल की मछली का होता है। मछली और मछली उत्पादों के उत्पादन में पिछले दशक में भारत ने औसत 14.8 प्रतिशत की विकास दर दर्ज की है जबकि इसी अवधि में वैश्विक विकास दर औसतन 7.5 प्रतिशत रही है। भारत में कई समुदायों की जीविका का प्राथमिक स्रोत मछली पकड़ना रहा है और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश भारत है। भारत 47,000 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के मछली निर्यात के साथ दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश बन गया है। मत्स्य पालन और जलकृषि उत्पादन भारत के सकल घरेलू उत्पाद और कृषि सकल घरेलू उत्पाद में क्रमशः 1% और 5% का योगदान देता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research-ICAR)
ICAR कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग, कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के तहत एक ऑटोनोमस बॉडी है। इसकी स्थापना 16 जुलाई, 1929 को इंपीरियल काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च नाम से हुई थी। यह परिषद देश में बागवानी, फ़िशरीज़ और पशु विज्ञान सहित कृषि के क्षेत्र में कोआर्डिनेशन, गाइडेंस और रिसर्च मैनेजमेंट तथा एजुकेशन के लिये एक सुप्रीम बॉडी है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने देश में हरित क्रांति लाने तत्पश्चात अपने अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी विकास से देश के कृषि क्षेत्र के विकास में अग्रणी भूमिका निभाई है।

ग्रामीण स्तर पर कृषि में विज्ञान और तकनीकी को बढ़ावा देने के लिये कृषि विज्ञान केंद्र ICAR की एक पहल है। वर्तमान में भारत में लगभग 716 कृषि विज्ञान केंद्र हैं। ICAR की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य कृषि को विज्ञान से जोड़ना और विज्ञान आधारित कृषि को बढ़ावा देना है। इस योजना के अंतर्गत कृषि क्षेत्र में तकनीकी को बढ़ावा देने के लिये किसानों और 105 स्टार्ट-अप के बीच संपर्क स्थापित करने की व्यवस्था की गई है। इसके साथ ही कृषि आय को बढ़ाने के लिए ICAR ने अलग-अलग कृषि जलवायु क्षेत्रों के अनुकूल 45 जैविक कृषि मॉडल तैयार किये हैं और 51 समायोजित कृषि तंत्रों को प्रमाणित किया है।
कृषि के क्षेत्र में सहकारिता
सहकारी समितियाँ जन-केंद्रित उद्यम हैं जिनका स्वामित्व, नियंत्रण और संचालन उनके सदस्यों द्वारा उनकी सामान्य आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिये किया जाता है। कृषि, ऋण, डेयरी, आवास और मत्स्य पालन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय कृषक उर्वरक सहकारी लिमिटेड (IFFCO), बागवानी उत्पादकों की सहकारी विपणन और प्रसंस्करण सोसायटी (HOPCOMS), इंडियन कॉफ़ी हाउस , अमूल, प्रतिभा महिला सहकारी बैंक, उड़ीसा राज्य सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ, कर्नाटक दुग्ध संघ, केरल सहकारी दुग्ध विपणन संघ (KCMMF) जैसे 800,000 से अधिक सहकारी समीतियों के साथ भारत का सहकारिता नेटवर्क विश्व के सबसे बड़े नेटवर्कों में से एक है।

प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56)के तहत व्यापक सामुदायिक विकास के लिये सहकारी समितियों को बढ़ावा दिया गया। केंद्रीय सहकारिता मंत्रालय की स्थापना (2021) में सहकारी मामलों की ज़िम्मेदारी संभाली गई, जिसकी देख-रेख पहले कृषि मंत्रालय करता था।
कृषि उत्पादन से संबंधित कृषि सहकारी समितियों के अलावा, उपयोगिता, वित्तीय और अन्य ग्रामीण सहकारी समितियाँ भी हैं। उपयोगिता सहकारी समितियाँ बिजली और दूरसंचार की आपूर्ति करती हैं। वित्तीय सहकारी समितियाँ ऋण और अन्य वित्तीय सेवाएँ प्रदान करती हैं। ग्रामीण सहकारी समितियाँ विभिन्न ज़रूरतों को पूरा करती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, हार्डवेयर, घरेलू और मशीनरी आपूर्ति आदि के लिए ग्रामीण सहकारी समितियाँ हैं। व्यक्तिगत किसानों की तुलना में, सहकारी समिति के सदस्य आर्थिक रूप से अधिक सुरक्षित होते हैं और उन्हें कम जोखिम का सामना करना पड़ता है
कृषि में तकनीक का प्रयोग
कृषि उत्पादकता बढ़ाने में तकनीक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए ऑटोमेशन, फर्टिगेशन, सॉयल सेंसर, जीपीएस तकनीक, मौसम की निगरानी में तकनीक का प्रयोग, ड्रोन जैसे मशीनीकरण के उपयोग ने मैनुअल श्रम की आवश्यकता को कम कर दिया है। सिंचाई प्रणालियों की शुरूआत शुष्क क्षेत्रों में फसल उगाना संभव बनाकर उत्पादन को बढ़ावा देने में भी मदद की है। इसके अलावा, आधुनिक तकनीक ने उच्च उपज वाली फसल किस्मों को विकसित करना संभव बना दिया है जो कीटों और बीमारियों के लिए प्रतिरोधी हैं। कृषि में तकनीक के उपयोग का फूड सिक्योरिटी पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। उत्पादन बढ़ाने से यह सुनिश्चित करने में मदद मिली है कि अधिक लोगों को पौष्टिक और किफायती भोजन मिल सके। कृषि में आधुनिक तकनीक ने उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि की है। इससे बदले में किसानों के लिए खाद्य सुरक्षा और आय में सुधार हुआ है। इसके अलावा, इसने नए रोजगार सृजित करने और ग्रामीण समुदायों के लिए जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद की है।
इसके साथ ही नई तकनीक को अपनाने से कृषि उत्पादों के मार्केटिंग और डिस्ट्रीब्यूशन के नए तरीके भी विकसित हुए हैं। इससे किसानों को अपने उत्पादों के लिए व्यापक बाजार तक पहुँचने में मदद मिली है।
हालाँकि, कृषि में तकनीक के उपयोग में कुछ कमियाँ भी हैं। मुख्य समस्याओं में से एक यह है कि इससे मशीनों और रसायनों पर अत्यधिक निर्भरता हो सकती है, जिसका रखरखाव महंगा हो सकता है। इसके अलावा, अगर इसका सही तरीके से इस्तेमाल न किया जाए तो यह पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचा सकता है।

पूजा राय ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) से पढ़ाई की है।
Lallantop में Internship करने के बाद NewsPotli के लिए कृषि और ग्रामीण भारत से जुड़ी खबरें लिखती हैं।