गुर्बत के ढेरों दिन निर्भर गुजरते हैं. कभी प्रकृति पर तो कभी इंसानों पर. किसानों की दुनिया में अगर गुर्बत दस्तक दे तो समझिए बड़ी वजह प्रकृति ही होगी. अपने खेतों में बैठकर बारिश का इंतज़ार करते किसानों की तस्वीर हमने-आपने, सबने सोशल मीडिया पर देख ली हैं और देखते भी रहते हैं. कोई किसान सूखे खेतों के साथ अपने खेतों में बारिश के इंतज़ार में बैठा है कि बारिश हो और उसकी फसल अच्छी हो. लेकिन इसी स्थिति की एक दूसरी तस्वीर भी है. इसी देश में कई ऐसे किसान भी होंगे जो अपने खेतों में आई बाढ़ को निहार रहे होंगे और सोच रहे होंगे कि उनकी क्या ग़लती थी जो उनकी पूरी फसल पानी से बर्बाद हो गई.
हम और आप अक्सर क्लाइमेट चेंज के नुकसानों पर इंटरनेशनल फोरम में चल रही बहसों को सुनते हैं लेकिन अभी जिन ऊपरी तस्वीरों का जिक्र किया वे नुकसान आम नहीं हैं. उनकी फसलें बर्बाद हो गईं. एक की पानी ना बरसने से और दूसरे की ज्यादा पानी बरसने से.
सवाल ये है कि मॉनसून इतना सौतेला व्यवहार क्यों दिखा रहा है? क्यों सूखे इलाके में बाढ़ की तस्वीरें हैं और भरपूर पानी वाले इलाकों में सूखा. पिछले दिनों राजधानी दिल्ली से लेकर बिहार तक हमने कई इलाके ऐसे देखे जहां पानी के लिए जद्दोजहद थी और उन्हीं जगहों के दूसरे इलाकों में बाढ़. आज जवाब ढूँढेंगे इन्हीं सवालों के.
ऐसा क्यों हो रहा है?
इस सवाल का जवाब समझने के लिए पहले हमें इस पैटर्न को समझना पड़ेगा कि ऐसा कैसे हो रहा है. इस पैटर्न को समझने के बाद हमारे लिए क्यों का जवाब पाना आसान होगा.
नीति अनुसंधान संस्थान की एक रिपोर्ट कहती है कि पिछले एक दशक में यानी साल 2012 से 2022 में लगभग 55% तहसीलों में मॉनसून की बारिश में बढ़ोतरी हुई है और ऐसा ज्यादातर पारंपरिक रूप से सूखे राज्यों राजस्थान और गुजरात में हुआ है. दूसरी ओर, देश भर के 11 प्रतिशत तहसीलों में पिछले एक दशक में मॉनसून की बारिश में दस प्रतिशत तक की कमी आई है और ऐसा उन मैदानी इलाकों में हैं, जो भारत के कृषि उत्पादन में आधे से अधिक का योगदान करते हैं. यानी सूखे में बारिश और बारिश वाले इलाके में सूखा वाली स्थिति स्पष्ट है. लेकिन बात केवल कहाँ बारिश हो रही है और कहाँ नहीं तक नहीं है. सवाल – बारिश कब हो रही है, का भी है. यह भी समझ लेते हैं.
आँकड़े कहते हैं कि 1901 के बाद से ही भारत में बारिश का रिकॉर्ड रखा जा रहा है. और तब से लेकर अब तक पिछले साल का अगस्त महीना ही ऐसा था जब सबसे कम बारिश हुई और सबसे ज्यादा गर्मी पड़ी. अगस्त के इस महीने में जो मॉनसून की बारिश के लिए जाना जाता है, 36 प्रतिशत तक बारिश की कमी आई.
लेकिन फिर ठीक एक महीने बाद, सितंबर 2023 में औरस्त से 13 परसेंट अधिक बारिश हुई. तब जा कर देश में मॉनसून की सामान्य बारिश की घोषणा हुई.
भारत के लिए जून से सितंबर का मौसम ख़रीफ़ फसलों-धान, अरहर और उड़द जैसी दालें, गन्ना, कपास, सोयाबीन के लिए महत्वपूर्ण है. देश के अधिकांश हिस्सों में बुआई जून के आसपास होती है और मानसून शुरू होने के बाद जुलाई तक जारी रहती है. इसके बाद आता है पौधों में फल लगने का वक्त जिसके लिए बारिश जरूरी होती है और सितंबर- अक्टूबर के अंत तक अधिकांश फसलों की कटाई शुरू हो जाती है. अब सवाल ये है कि जिन जून और जुलाई में बारिश की सबसे ज्यादा जरूरत हो तभी सूखा पड़ जाए और जिस सितंबर में किसान कटाई शुरू करने को हैं उस वक्त बारिश अपने पीक पर हो तो ऐसे मॉनसून का लाभ क्या है?
एक्सपर्ट्स कहते हैं कि बारिश देर से होना ही देश में बढ़ती पेयजल की कमी का कारण भी है और बढ़ती गर्मी का भी.
स्टेट क्लाइमेट चेंज स्टडी सेंटर, महाराष्ट्र में काम करने वाले वैज्ञानिक डॉक्टर धवल दामोलकर कहते हैं कि इसका कारण सिर्फ हम हैं. हमने ही चीजें इधर उधर की हैं. लोभ के चक्कर में पैटर्न तोड़ा और जब प्रकृति अपने पैटर्न तोड़ रही है तो हमें दिक्कत हो रही है. उनका कहना है कि बिना बारिश के मौसम के लंबे समय तक बारिश और कुछ ही घंटों में कई हफ्तों की बारिश ग्लोबल वार्मिंग की विशेषता है और भारत इस का सीधा गवाह बन रहा है.
सवाल यह है कि इस असामान्य स्थिति का हल क्या है?
एक्सपर्ट्स कहते हैं कि ये केवल हमारी ही नहीं दुनिया भर की समस्या है और दुनिया भर में इससे लड़ने को जिस तरह की रणनीति अपनाई जा रही है, हमें भी अपने लिए उनमें से ही एक चुनना होगा.
दो साल पहले चेन्नई, तमिलनाडु के स्थानीय मौसम वैज्ञानिक डीके राव ने बयान दिया था कि वक्त आ गया है कि हम प्रकृति में आए बदलावों को स्वीकारें और उस अनुसार अपनी खेती करें. हमें उसी अनुसार अपना रहन सहन भी बदलना होगा क्योंकि एक बार हम प्रकृति को चैलेंज कर के देख चुके हैं जिसका नतीजा हमें अलग अलग तरीके से प्रकृति बदलाव कर के दिखा रही है. बेहतर यही है कि हम इस बार प्रकृति को छेड़ने की बजाय चुपचाप ‘ After You’ बोल दें.