बांकुरा, पश्चिम बंगाल। मध्यम स्तर के उद्योगों की वजह से जानी जाने वाली पश्चिम बंगाल के बांकुरा की ज़मीन आज मज़दूरी और शोषण की मार झेल रही है। यहां की ईंट भट्टा इंडस्ट्री में हर साल नवंबर से उसके अगले साल मई तक करीब 40,000 मज़दूर काम करते हैं, लेकिन इनकी मेहनत का मोल ना के बराबर है।
बांकुरा में लगभग 400 ईंट भट्टे हैं। इन भट्टों पर मज़दूर 9-10 घंटे काम करते हैं—मिट्टी काटना, गूंथना, सांचे में डालना, सुखाना और भट्ठी तक पहुंचाना। ये सब इन्हीं का काम है। इस मजदूरी के बदले इन्हीं दिहाड़ी सिर्फ 200-250 रुपये ही मिलती है, जिसमें पेट पालना बहुत मुश्किल है।

इस काम में सबसे बड़ी संख्या महिलाओं की है। कई परिवारों का कहना है कि उन्हें मजबूरी में अपने स्कूली बच्चों को भी साथ लाना पड़ता है। न्यूज़ पोटली से बात करते हुए पॉयाबगान के एक भट्टे पर काम करने वाली मालती माला ने बताया, “यहां मजदूरी बहुत कम है। जितना मिलता है उसमें गुजारा नहीं हो पाता। इसलिए हाथ बंटाने के लिए बच्चों को भी लाना पड़ता है, इससे काम में थोड़ी आसानी हो जाती है, और ज्यादा ईंट बना पाने की वजह से रुपये भी थोड़ा ज्यादा मिल जाता है।”
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हालांकि मालिकों का दावा है कि, 1000 कच्ची ईंटें तैयार करने पर मज़दूरों को 1000 रुपये दिए जाते हैं, लेकिन मज़दूरों का तर्क है, क्योंकि ये काम कई मजदूर मिलकर करते हैं, इस वजह से पैसे बट जाते हैं और उनके हिस्से सिर्फ 200-250 रुपये ही आते हैं।
बुनियादी जरूरतों की कमी
अपनी रिपोर्ट में न्यूज़ पोटली ने पाया, ज्यादातर किसान ईंट-भट्टों के पास ही अस्थायी मकान बना कर रह रहे हैं। यहां ना सही से शौचालय की व्यवस्था है, और ना ही बाकी दूसरी बुनियादी सहूलीयत है। मज़दूरों ने हमे बताया कि, ज्यादातर वही लोग खाना बनाते हैं। ज्यादातर उनकी थाली चावल और आलू ही होता है, क्योंकि ये बाकी राशन के मुकाबले उन्हें सस्ता पड़ता है।

MGNREGA के तहत मिलने वाला काम पिछले चार साल से बंद
बांकुरा कभी फेरो और स्पंज आयरन इंडस्ट्री का केंद्र हुआ करता था, लेकिन बीते दशक में बाज़ार में गिरावट और राजनीतिक दखल के चलते ये उद्योग बंद हो गए। इसके बाद से हज़ारों लोगों के पास रोज़गार का कोई स्थायी ज़रिया नहीं बचा।
अपनी investigation में हमने पाया कि MGNREGA के तहत मिलने वाला काम भी पिछले चार साल से बंद है। केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते भुगतान रोक दिया, और राज्य सरकार भी कुछ नहीं कर रही है। नतीजा, 50,000 से ज़्यादा युवा प्रवासी मज़दूर बन चुके हैं।
प्रशासन की बेरुखी?
जब न्यूज़ पोटली ने इस बारे में बांकुरा के सहायक श्रम आयुक्त से बात की, तो उनका जवाब था, “हमें किसी भी तरह की शिकायत नहीं मिली है। अगर जानकारी दी जाती है, तो हम कार्रवाई करेंगे।”
हकीकत जो भी हो, लेकिन सच्चाई है, जिनकी मेहनत के आपके आशियाने बनकर तैयार होत हैं, सरकार और प्रशासन की बेरुखी की वजह से आज उन्हें छत तक मयस्सर नहीं है।
न्यूज़ पोटली के लिए पश्चिम बंगाल से मधुसूदन चैटर्जी की रिपोर्ट
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