“जो धरती को सींचे, वो खुद सूखे क्यों रहे?”

महाराष्ट्र
Pankaj Srivastav

Pankaj Srivastav

Consultant, News Potli

यह तस्वीर महाराष्ट्र के लातूर जिले के हाडोलती गांव की है, जहां किसान अंबादास पवार खुद बैल की जगह हल खींच रहे हैं और उनकी पत्नी मुक्ताबाई पवार पीछे से हल चला रही हैं। आमदनी न होने की मजबूरी ने इस दंपती को खेत जोतने के इस पीड़ादायक तरीके पर मजबूर कर दिया है। यह दृश्य उस ‘कृषिप्रधान’ भारत पर सवाल उठाता है, जहां किसान अब भी अपने शरीर से ज़मीन जोतने को विवश है। यह तस्वीर सिर्फ़ एक दृश्य नहीं, एक मौन चीख है, जो अब भी सुनी नहीं गई।

हां, भारत को “कृषिप्रधान देश” कहा जाता है। हमारे बजट भाषणों में, चुनावी मंचों पर, और सरकारी घोषणाओं में अक्सर कहा जाता है, “किसान देश की रीढ़ हैं।” लेकिन इस रीढ़ की हड्डी कितनी झुकी, टूटती और दरकती जा रही है, इसका अहसास शायद उन मंचों से नहीं हो पाता जहां सूट-बूट में लोग बैठे होते हैं।

क्या यह विडंबना नहीं कि जिस देश की अर्थव्यवस्था अब भी बड़ी हद तक कृषि पर टिकी है, वहां सबसे ज़्यादा आत्महत्या करने वाला वर्ग किसान है?

ट्रैक्टर की बिक्री और MSP घोषणाएं तो अख़बार की हेडलाइंस बन जाती हैं, लेकिन उस किसान की खबर कौन बनाता है जो रात में खेत में सिंचाई करते-करते वहीं थक कर गिर जाता है?

बीज बोता है, कर्ज उगता है!
किसान जब बीज बोता है, तो वह उम्मीद बोता है, भविष्य बोता है। लेकिन मौसम की बेरुखी, मंडी की मनमानी, और सरकारी योजना की सुस्ती उसके खेत में अनचाहे कर्ज की फसल उगा देती है। आज का किसान फसल से नहीं, कर्ज से डरता है। बारिश से नहीं, बैंक से घबराता है।

ये भी पढ़ें – महाराष्ट्र में जनवरी से मार्च 2025 के बीच 700 से ज्यादा किसानों ने की Suicide, मंत्री ने विधानपरिषद में दी जानकारी

“डिजिटल इंडिया” के दौर में मिट्टी से जुड़ा आदमी अकेला है
जब हम मेटावर्स, एआई और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के सपने बुन रहे हैं, तब गांव के एक कोने में बैठा यह किसान अब भी सोच रहा है कि बिजली कब आएगी, फसल का सही दाम कब मिलेगा और अगली बार बीज खरीदने के लिए पैसा कहां से आएगा।

❝कटाक्ष नहीं, करुणा का समय है❞
कभी किसी सुपरमार्केट में खड़े होकर चमचमाते दामों वाली सब्जियों को देखिए… उसमें सिर्फ ताज़गी नहीं, बल्कि किसी किसान की आधी रातें, गीली आंखें और फटे हुए जूते भी झलकते हैं। यह सिर्फ़ आंकड़ों का मामला नहीं, यह एक पूरी सभ्यता की संवेदना का प्रश्न है।

अब भी वक़्त है…

  • नीतियों को ज़मीन तक उतारिए।
  • कर्जमाफी नहीं, सम्मान और स्थायीत्व दीजिए।
  • फसल का नहीं, किसान का मूल्य समझिए।

क्योंकि अगर किसान उम्मीद छोड़ दे, तो देश भूख से लड़खड़ा जाएगा। वो तस्वीर बस एक किसान की नहीं, हमारे भविष्य की तस्वीर है।

लेखक पंकज श्रीवास्‍तव वरिष्ठ पत्रकार और न्यूज पोटली के सलाहकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं।

ये देखें –

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *