राजस्थान। पश्चिमी राजस्थान का वह क्षेत्र है, जहां पानी की कमी के कारण लोगों को अपनी प्यास बुझाने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। चाहे वह तपती दोपहर हो या सर्द रात, यह कहानी किसी एक गांव की नहीं, बल्कि राजस्थान के हजारों गांवों की है। यहां पानी की तलाश में हर व्यक्ति को कठिनाई का सामना करना पड़ता है। पश्चिमी राजस्थान में कम वर्षा होने के कारण यह समस्या और बढ़ जाती है। जैसलमेर में वर्षा मात्र 100 मिलीमीटर होती है। फिर भी यहां के लोग कम पानी में अपने जीवन का पालन करते हैं।
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राजस्थान, क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे बड़ा राज्य है, लेकिन इसका अधिकांश भूभाग रेतीला या पथरीला है, जिसके कारण पानी की भारी कमी है। पीने के पानी का जुगाड़ करना एक संघर्ष से कम नहीं है। खेती-बाड़ी की बात करना तो दूर की बात है। एक वक्त था जब यहां की जिंदगी पूरी तरह बारिश पर निर्भर थी, लेकिन अब ग्रामीण विकास और विज्ञान समिति के प्रयासों से स्थितियां पहले से थोड़ी बेहतर हुई हैं।
भाई खान कहते हैं कि यहां के लोग खेती की निर्भरता अब भी बारिश पर है। यदि बारिश हो तो फसलें ठीक होती हैं, लेकिन बिना बारिश के कुछ नहीं हो सकता। खड़ीन (जलाशय) बन जाने पर डबल फसल हो जाती है। पहले पानी बहकर चला जाता था, नदियां खोदी जाती थीं, और दो-तीन महीने पानी रुकता था, अब पूरे 12 महीने पानी रहता है।
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ग्रेवीस के सीनियर प्रोग्राम कॉर्डिनेटर राजेन्द्र कुमार कहते हैं कि जल संचय की गतिविधियों में हमने यहां 8,000 से ज्यादा रेन वाटर हार्वेस्टिंग टांके बनाए हैं। 800 से ज्यादा बेरियां (सीपेज वेल) बनाई हैं, लगभग 1,000 तालाब बनाए गए हैं, जिनमें जल संचय कर पशुधन के लिए पानी का इंतजाम किया जाता है। इसके अलावा, 6,000 फार्मिंग डाइस के जरिए खाद्य सुरक्षा को बढ़ाया गया है।
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पश्चिमी राजस्थान में 12 जिले आते हैं, जिनमें जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर और बिकानेर शामिल हैं। ग्रेविस (ग्रामीण विकास विज्ञान समिति) की मदद से पारंपरिक तरीकों से पानी की संग्रहण व्यवस्था की गई है, जिससे पानी बचाने के साथ-साथ प्राकृतिक खेती को बढ़ावा मिला है।
आगे राजेन्द्र कुमार कहते हैं कि पश्चिमी राजस्थान में खेती मुख्य रूप से जैविक खेती होती है, क्योंकि यहां किसान रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं करते हैं। हालांकि, बाजार में नए उत्पाद आने के बाद किसान रसायनों का प्रयोग करने लगे हैं, लेकिन इससे जमीन की उर्वरता में कमी आती है। इसलिए हम किसानों को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि वे प्राकृतिक खेती को अपनाएं, ताकि जमीन की उर्वरता बनी रहे।
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जोधपुर के सिद्धिपुरा के अब्दुल मसीद कहते हैं कि ग्रेवीस की मदद से कई सालों से लोगों की जिंदगी में बदलाव लाया गया है। पहले पानी की समस्या बहुत बड़ी थी। हम लोग बारिश का पानी इकट्ठा करते थे, लेकिन वह गंदा होता था, जिससे बीमारियां फैलती थीं। अब स्थिति पहले से काफी बेहतर हो गई है, और पानी साफ रहता है।
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ग्रेवीस ने 1983 में इस क्षेत्र में पानी की समस्या का समाधान शुरू किया था और अब यह काम 1,500 गांवों में फैल चुका है। इस प्रक्रिया को ईस्ट अफ्रीकी देशों में भी अपनाया गया है, जहां लोगों की प्यास बुझाई गई है। अब पानी की सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। ग्रेवीस का काम अब बुंदेलखंड, उत्तराखंड, और दक्षिण अफ्रीका में भी फैल चुका है, और जहां भी इस तरह की समस्या है, वहां यह प्रयास जारी है।