अपने मासिक धर्म के दौरान पुराने कपड़े इस्तेमाल करने वाली वाराणसी की मुसहर बस्ती की 17 साल जुही (पहचान गोपनीय रखने के लिए नाम बदला गया) आज माहवारी स्वच्छता पर जागरूकता अभियान की अगुआ बन चुकी हैं। उनके इस सफर ने ये बता दिया कि, जानकारी और हिम्मत ना केवल किसी लड़की की ज़िंदगी बदल सकती है, बल्कि समाज में बदलाव की लहर ला सकती है।
वाराणसी: आज भले ही भारत की बेटियां अंतरिक्ष से लेकर स्पोर्ट्स और साइंस तक हर मोर्चे पर देश का परचम लहरा रही हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ एक बड़ा सच ये भी है कि, आज भी हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा मासिक धर्म यानी पीरियड्स जैसे ज़रूरी और प्राकृतिक विषय पर बात करने से कतराता है। खुद महिलाओं में इसको लेकर समझ बहुत कम है। ऐसे ही लोगों को वाराणसी के पिंडरा ब्ल़ॉक में रहने वाली जूही (बदला हुआ नाम) जागरूक कर रही है। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए जूही बताती हैं
“खरुआपर गांव की मुसहर बस्ती में बड़ा होना बहुत मुश्किल था, हम छह लोगों का परिवार दिहाड़ी मजदूरी पर चलता था। सैनिटरी पैड जैसी चीजें हमारे लिए ‘लक्ज़री प्रोडक्ट्स’ थीं, जो हम नहीं खरीद सकते थे।”
उन दिनों जुही अपने पीरियड्स के दौरान घर के फटे हुए कपड़े, या पुरानी पेटीकोट इस्तेमाल करती थीं। वो बताती हैं, ये असुविधाजनक था, सफाई की भी दिक्कत थी, और सबसे खराब बात बदलने के लिए कोई वॉशरूम या कोई निजी जगह नहीं होती थी, पूरा दिन एक ही कपड़ा पहनना पड़ता था।
एक विडंबना ये भी कि, सरकारी योजना के तहत उनके परिवार को एक शौचालय मिला था, लेकिन वो कभी इस्तेमाल नहीं हुआ। इसकी बड़ी वजह है घर में जगह की कमी। जूही का परिवार उसमें अनाज रखता था, ना सिर्फ जूही का परिवार बल्कि उस गांव के दूसरे परिवार, जिन्हें सरकारी शौचालय मिला था, उनमें से ज्यादातर लोग इसका यही इस्तेमाल करते थे।
बदलाव की कहानी
बदलाव की शुरुआत जन मित्र न्यास (JMN) नाम की संस्था की पहल पर हुई। ये संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू द्वारा समर्थित है, और गांव में काम करती है। उन्होंने नियमित रूप से जीवन कौशल, स्वास्थ्य और माहवारी स्वच्छता पर सत्र आयोजित किए और सैनिटरी पैड दिए।
“हमारे सत्रों में लड़कियों के लिए एक सुरक्षित माहौल सुनिश्चित करना अनिवार्य था,” टीम की एक सदस्य कहती हैं, “अगर वे खुलकर बोल ना पातीं, सवाल न पूछ पातीं, तो कुछ भी मुमकिन नहीं हो पाता।”
जूही इस समूह का हिस्सा बनीं और धीरे-धीरे अपने शरीर को समझना और माहवारी स्वच्छता का महत्व जानना शुरू किया। वो कहती हैं,
“मैंने नियमित रूप से पैड इस्तेमाल करने शुरू किए। फर्क महसूस हुआ, ना खुजली, ना इन्फेक्शन, ना डर।”
जूही को देखकर उनकी सहेली सविता (नाम बदला गया) और दूसरी लड़कियां भी आगे आईं। सविती बताती हैं,
“हमने दुकानों से पैड खरीदना शुरू किया। यहां तक कि अपने शौचालय साफ रखना भी सीखा, ताकि पीरियड्स के दौरान ठीक से इस्तेमाल कर सकें”।
पहल का असर
एक घर से शुरू हुआ बदलाव आज पूरे गांव के लोगों को जागरूक कर चुका है। जूही और उनकी साथी लड़कियां घर-घर जाकर दूसरी महिलाओं को जागरूक कर रही हैं। वो सेशंस का आयोजन करती हैं, महिलाओं और लड़कियों को शिक्षित करती हैं। कई दूसरी लड़कियां भी अब इनसे प्रेरित होकर आवाज़ उठा रही हैं।
माहवारी कोई अभिशाप नहीं है, ये हमारे जीवन का एक सामान्य हिस्सा है, और अब हमें इसके बारे में बात करने में कोई शर्म नहीं है—जूही
इनकी यात्रा इस बात का जीता-जागता प्रमाण है कि, जब लड़कियों को जानकारी और सहयोग मिलता है, तो वो ना केवल अपने घरों में, बल्कि पूरे समाज में बदलाव ला सकती हैं।
जूही जैसी चेंजमेकर ही असली बदलाव की कहानी लिख रही हैं। एक बातचीत, एक घर, एक गांव के ज़रिए। जहां आज भी माहवारी को शर्म और चुप्पी में ढका जाता है, वहीं जूही की आवाज़ बदलाव की नींव रख रही है। वो सिर्फ स्वच्छता की बात नहीं कर रही। वो लड़कियों के लिए गरिमा, आत्मनिर्भरता और बिना भेदभाव के अपने शरीर के साथ जीने के हक़ की लड़ाई लड़ रही हैं। अब समय है कि हमारी लड़कियां जूही जैसी चेंजमेकर की बात सुनें और बदलाव की इस लहर का हिस्सा बनें।