मेंथा को कृषि क्षेत्र में नकदी फसल के रूप में भी जाना जाता है, हालांकि इसका उपयोग दशकों से आयुर्वेद में विभिन्न दवाओं के लिए किया जाता है, इसलिए मेंथा ( पोदीना, पिपरमेंट ) की खेती कश्मीर, पंजाब, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड सहित भारत के कई क्षेत्रों में की जाती है। मेंथा उत्तर प्रदेश में बड़े क्षेत्रों में उगाया जाता है, उच्च मांग के कारण कई क्षेत्रों में इसकी खेती लोकप्रिय हो रही है। मेंथा की नई किस्में, खेती की उन्नत तकनीक की खोज करने वाले संस्थान CIMAP के वैज्ञानिकों और कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक अगर किसान कुछ बातों का ध्यान रखें तो मेंथा से 3 महीने में ही बहुत अच्छी कमाई हो सकती है।
ज़्यादातर किसान मेंथा की रोपाई गेहूं की कटाई के बाद की जाती है।CIMAP के प्रधान वैज्ञानिक डॉ राजेश कुमार ने मार्च-अप्रैल में मेंथा की खेती करने के टिप्स बताये हैं जिससे फसल का उत्पादन अच्छा होगा और तेल भी अधिक निकलेगा। मेंथा की रोपाई का सही समय फरवरी से लेकर अप्रैल तक माना जाता है।
दवा से लेकर सौंदर्य प्रसाधन और खाद्य पदार्थों तक इसके उपयोग के कारण मेंथा तेल की मांग लगातार बढ़ रही है, जिसके कारण किसानों को बहुत अच्छा मुनाफा हो रहा है, और भारत इसका सबसे बड़ा उत्पादक है, विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान समय-समय पर मेंथा की खेती के लिए काम करते हैं और सरकार द्वारा मेंथा की खेती के लिए कई योजनाएँ बनाई जाती हैं, जिसका लाभ ले कर किसान अनुदान प्राप्त करके खेती कर सकते हैं।
इस किस्म की रोपाई करें
मेंथा की खेती करने वाले ज्यादातर किसान “सिम उन्नत किस्म” की रोपाई करते हैं। डॉ. राजेश वर्मा के मुताबिक़ यूपी के लगभग 90 % किसान सिम उन्नत किस्म की खेती करते हैं। क्योंकि इसमें तेल ज्यादा निकलती है। उन्होंने बताया कि सिम उन्नत के अलावा कोशी, सिम क्रांति की भी बड़े पैमाने पर खेती होती है। किसानों को सलाह देते हुए कहा कि जो किसान गेहूं की कटाई करके मेंथा की खेती करना चाहते हैं वे कोशी किस्म, सिम क्रांति किस्म का चुनाव करें। गेहूं के खेत अप्रैल महीने में खाली होता है ऐसे में किसानों को इस बात का विशेष ध्यान रखें कि लाइन की लाइन से दूरी 1.5 फीट रखनी चाहिए व पौधे से पौधे की दूरी 12 से 15 सेमी रखनी चाहिए। अप्रैल के महीने में मेंथा की फसल लगाने से फसल को समय कम मिलता है ऐसे में पौधे कम दूरी पर लगाने चाहिए।
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रेज्ड विधि से करें मेंथा की खेती
उन्होंने बताया कि ज्यादातर किसान मेंथा की खेती समतल जमीन पर करते हैं, लेकिन अगर वो अपनी खेती के तरीके में थोड़ा बदलाव कर दें तो कम लागत, कम सिंचाई में ज्यादा उत्पादन मिलेगा। उनके मुताबिक़ मेंथा या मिंट की खेती रेज्ड बेड (नालियां बनाकर) विधि से करनी चाहिए। ऐसे में उत्पादन क्षमता 20 से 30 प्रतिशत बढ़ जाती है। अगर रोपाई मार्च में हो जाती है तो जून तक किसान दो कटाई कर सकते हैं। रेज्ड या नाली विधि मतलब आलू की बोने की तरह ट्रैक्टर से नालियां बनाई जाएं और उसके ऊपर हिस्से में किनारे पर तैयार पौध की रोपाई की जाए। बताया कि रेज्ड बेड विधि से मेंथा की ऱोपाई करने पर उर्वरक कम लगता है और पौधों की संख्या भी बढ़ जाती है। इसके अलावा खरपतावर की समस्या भी कम होती है। नाली के ऊपर रोपाई का एक फायदा ये भी होता है कि निराई, गुड़ाई का खर्च बच जाता है, साथी सिंचाई, उर्वरक या कीटनाशक का छिड़काव करने के दौरान पौधों को नुकसान नहीं होता है।
खाद प्रबंधन
खेत में गोबर की सड़ी हुई खाद या वर्मी कम्पोस्ट डालने से रासायनिक उर्वरक की मात्रा में 25 से 50% तक कम की जा सकती है। डॉ. वर्मा ने बताया कि मेंथा की फसल में जिंक सल्फेट व आयरन सल्फेट 12 से 15 किग्रा प्रति हेक्टेयर डालने से 20 से 25 प्रतिशत अधिक तेल निकलता है। जब फसल 45 दिन की हो जाए तो उसमें जिंक सल्फेट 12 से 15 किग्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें। 60 दिन की फसल होने पर आयरन सल्फेट 12 से 15 किग्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें। यूरिया, फास्फोरस, पोटैशियम नाइट्रोजन की पर्याप्त में डालें। इससे उत्पादन अच्छा होता है।
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पूजा राय ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) से पढ़ाई की है।
Lallantop में Internship करने के बाद NewsPotli के लिए कृषि और ग्रामीण भारत से जुड़ी खबरें लिखती हैं।