बैलों की रेस… रोमांच की अलग ही दुनिया है, बैल या बैलगाड़ियों की रेस, देश के कई राज्यों में होती है, जिसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। महाराष्ट्र बैलगाड़ा रेस. शर्यत और कहीं शंकरपट भी कहा जाता है. तमिलनाडु में ‘जल्लीकट्टू’, के नाम से जाना जाता है। बैलगाड़ी से ग्रामीण इलाकों और किसानों का पारंपरिक खेल और सांस्कृतिक महोत्सव है, जिसके कई आर्थिक पहलू भी हैं। पशुक्रूरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में जल्लीकट्टू समेत इस तरह की प्रतियोगिताओं पर रोक लगा दी थी, जिसे साल 2021 में दोबारा शुरु किया गया।
महाराष्ट्र की बात करें तो स्थानीय किसान इसे 450 साल पुरानी परंपरा बताते हैं, जो कोंकण, पश्चिमी महाराष्ट्र और मराठवाडा रीजन के गांवों में होती हैं। बैलगाड़ी किसी त्योहार से कम नहीं होती। एक-एक रेस में हजारों लोग एकत्र होते हैं। इस रेस के लिए दावेदार महीनों से मेहनत करते हैं, बैलों पर हजारों रुपए खर्च करते हैं, और जब सजे-धजे, रंगे हुए बैल दौड़ लगाते हैं तो उनके पीछे उडता धूल का गुबार और समर्थकों की चीके अलग ही रोमांच पैदा करती हैं। ये रेस अलग-अलग तरीकों से होते हैं, कहीं सिर्फ बैल दौड़ते हैं, कहीं बैल बैलगाड़ी पर तो कहीं धावक पीछे भागता हैं तो कहीं ये रेस पानी और कीचड़ में होती है।
बैलगाड़ा रेस जीतने वालों को अच्छी खासी रकम या बड़ा गिफ्ट इनाम में मिलता है। पुणे में मोरगांव के तटोडी गांव की जिस रेस की आप तस्वीरें देख रहे हैं यहां विजेता को 1 महिद्रां थार. रनरअप को टैंपो, तीसरे स्थान के लिए बुलेट और बाकी 4 विजेताओं को मोटर साइकिल इनाम में मिली हैं। हालांकि कुछ लोग कहते हैं, ज्यादा पैसे और दिखावे के शोर ने इस खेल को इसके परंपरागत छवि से दूर कर दिया है।
शर्यत जैसे आयोजन ग्रामीण इलाकों में आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इन यात्राओं, मेलों में हजारों लोग जुटते हैं, सैकड़ों दुकानदार आते हैं। ग्रामीण खेती से जुड़े उपकरण, पशुओं की साज सज्जा से जुडा सामान खरीदते हैं। और ये पूरा आयोजन एक त्योहार सा बन जाता है।
Disclaimer: न्यूज पोटली ऐसी किसी भी प्रकार की रेस का समर्थन नहीं करता है।