बिहार के कैमूर ज़िले के किसान रविशंकर सिंह को खेती विरासत में मिली। 80 एकड़ में खेती कर रहे बिहार के इस किसान ने एकीकृत मॉडल को अपनाया। आज उनका सालना टर्नओवर करीब 1 करोड़ रुपये का है।
गांव में रहकर खुशहाली और समृद्धि का सबसे सशक्त रास्ता अगर कोई है, तो वो है खेत, और इस सच्चाई के सबसे जीवंत उदाहरण हैं, बिहार के कैमूर जिले के किसान, रविशंकर सिंह। कुटवंतपुर मोरवा गांव के इस मेहनती किसान के पांव जब से खेत में पड़े, तब से उनकी ज़मीन मानो सोना उगल रही है। वो Integrated farming model अपनाते हैं। उनका मानना है कि, इस तरीके की खेती से ही किसान मुनाफा निकाल सकता है।
“3-4 लाख मछली से उत्पादन कर लेते हैं। नेट हाउस से भी 3-4 लाख रुपये निकाल लेते हैं। हॉर्टीकल्चर से 40-50 लाख रुपये निकाल लेते हैं। अनाज और बीज उत्पादन से 30-40 लाख रुपये कमा लेता हूं। डेयरी से 4-5 लाख रुपये। मेरे देश की मिट्टी सोना उगले ये सब बोलते हैं। खेत कभी खुद को खाली नहीं रखता है। आप अगर कुछ बोइयेगा तो वो उगेगा, नहीं तो ज़मीन में घांस वगैरह उग जाएगी”

रविशंकर सिंह 80 एकड़ में खेती करते हैं। उन्होंने पारंपरिक खेती को आधुनिक सोच के साथ जोड़ा है। फसल विविधिकरण, जल संरक्षण और जैविक खेती की तकनीकों को अपनाकर उन्होंने एक ऐसा मॉडल खड़ा किया, जो ना सिर्फ मुनाफा दे रहा है, बल्कि पर्यावरण के प्रति ज़िम्मेदार भी है। गांव के युवा जहां शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, वहीं रविशंकर ने दिखाया कि, अगर इरादा मजबूत हो, तो खेत की आमदनी से ही सपनों का महल बन सकता है।
“इस वक्त वर्तमान में 100 से ज्यादा क्रॉप हमारे यहां है। धान, गेहूं, मक्का, खरीफ की फसलें लेता हूं। उसके बाद रबी फसलों में दलहनी है। हॉर्टीकल्चर की बात करें तो हमारे पास स्ट्रॉबेरी भी है, तरबूज, खरबूज की बड़े पैमाने पर खेती करता हूं। फल में पपीता, आम, नींबू इसके बाद मैं सब्जियों में सीजनल, भिंडी, लौकी, नेनुआ, तरोई खीरा ककड़ी ये उगाता हूं। आधा एकड़ में नेट हाउस है। इसमें मैं सीजन में शिमला मिर्च लेता हूं। अभी मैंने खीरा लिया है। सितंबर में शिमला मिर्च की खेती करते हैं। लोकल मार्केट में इसे काफी अच्छा रेट मिल जाता है।“

रविशंकर सिंह जहां रहते हैं, भौगोलिक लिहाज से वो इलाका समृद्ध होने के बावजूद पानी की यहां बहुत दिक्कत है। वॉटर लेवल 200 फीट पर है। अच्छा पानी चाहिए तो 350 फीट तक भी बोरिंग करनी पड़ती है। पानी की दुश्वारियों की वजह से यहां ज्यादातर किसान साल भर में सिर्फ एक फसल ही ले पाते हैं, काफी दिक्कत है। ज्यादातर किसान साल में एक फसल ही ले पाते हैं। बाकी वक्त जमीनें खाली पड़ी रहती हैं। कैमूर के किसान ने इसका हल निकाला और ड्रिप इरीगेशन सिस्टम लगवाया। साथ ही एक तालाब भी खुदवाया। बारिश के मौसम में पानी उसी तालाब में भरता है। वहीं से उनके खेतों में ड्रिप के जरिए पानी पहुंचता है।
पंतनगर जब मैं गया तो वहां मैंने सूक्ष्म सिंचाई को देखा। पॉलीहाउस को देखा। नेट हाउस को देखा। ड्रिप इरीगेशन कैसे पानी की बचत करता है? आज मेरे यहां 20 एकड़ में ड्रिप इरीगेशन लगा है। मेरी सोच थी खेती भी हो जाए और हम पानी की समस्या से जूझ रहे हैं, तो पानी भी हो जाए। कम पानी में ज्यादा खेती करने के लिए मैंने ड्रिप इरीगेशन को लगाया। मिनी स्प्रिंकलर को लगाया। पोर्टेबल स्प्रिंकलर लगवाया। ताकि उसमें चना, मसूर, गेहूं की सिंचाई अच्छे से हो सके।

जब खेत खलिहान गुलजार हों, तो गांव से पलायन की कोई वजह नहीं बनती, लेकिन विडंबना देखिए गंगा की गोद में बसे बिहार की मिट्टी देश की सबसे उपजाऊ ज़मीनों में शुमार होने के बावजूद अपने लोगों को उस पैमाने पर रोज़गार देने में नाकाम मानी जाती है, जितनी जरूरत है। पलायन और रोजगार यहां हर चुनाव का सबसे अहम मुद्द बनता है। रविशंकर ने बहुत तो नहीं लेकिन, मामूली तौर पर ही सही खेती के अपने मॉडल से कम से कम अपने गांव के कुछ लोगों का पलायन रोका और रोजगार दिया। इसके साथ ही उन्होंने 7 दिन 7 सब्जी मॉडल पर एक खेत तैयार किया है। हर दिन अलग-अलग पोषक तत्वों से भरपूर सब्जी उनके खेत में उगती है, वो उसे ही खाते हैं और दूसरों को भी खिलाते हैं।
आज मेरे यहां हर दिन स्थायी रूप से 10 मजदूर रुकते हैं, और सीजन में काम के हिसाब से एक दिन में 50-100 लोगों को मैं काम देता हूं। हम उनके न्यूट्रिशन का भी ध्यान देत हैं, क्योंकि हमारे यहां सालभर साग-सब्जी होती है। वो आते हैं, उसे तोड़ते हैं छटनी करते हैं। वो सारी चीज़ें उनके घर तक भी पहुंचती है

रविशंकर सिंह आज बिहार के बड़े किसान बन गए हैं। लोग उनके फार्म पर खेती सीखने आते हैं। प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें कई बड़े अवार्ड मिल चुके हैं। रविशंकर का मानना है कि अच्छी खेती के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है। रविशंकर सिंह की जिंदगी में बड़ा बदलाव उस वक्त आया जब महज़ 19 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे रविशंकर का सपना था, मेडिकल या टीचर बनने का, लेकिन हालात उन्हें गांव खींच लाए। विरासत में मिली ज़मीन और काले खेत, लेकिन बिना किसी योजना के शुरू हुई खेती ने आज उन्हें मिसाल बना दिया है।
“पिता जी के निधन के बाद भी पढ़ाई को मैंने निरंतर जारी रखा, जीवन में एक चीज़ है कि, आदमी को कुछ करना है तो शिक्षा जरूरी है। जब तक उधर हमारी शिक्षा पूरी होने को थी तब तक मेरा खेती में मन भी लगने लगा। गांव तब मुझे अच्छा लगने लगा।“
रविशंकर सिंह की कहानी बताती है कि, पलायन सिर्फ मज़बूरी नहीं, एक विकल्प है। अगर सही सोच और तकनीक साथ हो, तो गांव ही सबसे बड़ा रोज़गार बन सकता है।
वीडियो स्टोरी यहां देंखें: